केले की खेती: एक लाभदायक फसल की पूरी जानकारी

By : Tractorbird Published on : 02-May-2025
केले

केला सबसे पुराना और लोकप्रिय फलों में से एक है। इसे 'स्वर्ग का सेब' (Apple of Paradise) भी कहा जाता है। इंडो-मलय क्षेत्र को केले का उत्पत्ति स्थान माना जाता है। 

केला ताजे फल के रूप में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। केले के कंद (pseudostem) के केंद्रीय भाग का उपयोग सब्जी के रूप में किया जाता है। इसके अलावा केले के कंद से कागज और बोर्ड भी बनाए जाते हैं।

भारत क्षेत्रफल और उत्पादन दोनों में पहले स्थान पर है। भारत में लगभग 4,90,700 हेक्टेयर क्षेत्र में केले की खेती होती है, जिससे प्रति वर्ष लगभग 1,68,13,500 मीट्रिक टन उत्पादन होता है, जो वैश्विक उत्पादन का लगभग 17% है। 

भारत के विभिन्न राज्यों में तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र इस उत्पादन में प्रमुख भागीदारी रखते हैं। इस लेख में हम आपको केले की खेती से जुडी सम्पूर्ण जानकारी देंगे। 

केले की खेती के लिए जलवायु 

सर्दियों के कम तापमान से केले की खेती में समस्या उत्पन्न होती है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि केले के उत्पादन में पर्याप्त गर्मी बहुत जरूरी है।

तमिलनाडु के तटीय क्षेत्रों में चक्रवाती हवाएं केले के बागानों को नुकसान पहुंचाती हैं। इसलिए ऐसी जगहों का चयन करना चाहिए जहां औसत तापमान 25°C से 30°C के बीच हो और वार्षिक वर्षा औसतन 100 मिमी प्रति माह हो।

केले के अच्छे विकास के लिए वर्षभर में लगभग 1700 मिमी वर्षा की आवश्यकता होती है। जलभराव केले के लिए हानिकारक होता है और इससे 'पनामा विल्ट' जैसी बीमारियां हो सकती हैं।

केले की खेती के लिए मिट्टी

केला सबसे खराब से सबसे अच्छी मिट्टी में उगाया जा सकता है, लेकिन सफलता की दर अलग-अलग होती है। मिट्टी में अच्छा जल निकास, उपजाऊता और नमी होनी चाहिए।

गहरी, उपजाऊ दोमट मिट्टी (loamy) और नमकीन चिकनी दोमट मिट्टी (salty clay loam) जिसमें pH 6 से 7.5 हो, केले की खेती के लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती है।

खराब जलनिकासी वाली, कम हवा वाली और पोषण की कमी वाली मिट्टी केले के लिए उपयुक्त नहीं है। अत्यधिक चिकनी, रेतीली, क्षारीय (saline) और चूनेदार (calcareous) मिट्टी में केले की खेती नहीं करनी चाहिए।

केले की खेती के लिए खेत की तैयारी (Field Preparation) 

  • केले की खेती से पहले हरी खाद की फसलें जैसे ढैंचा (daincha), लोबिया (cowpea) उगाकर खेत में पलट दें। खेत को 4-6 बार जोतना चाहिए और 2 हफ्तों तक खुला छोड़ना चाहिए।
  • रोटावेटर या हैरो से मिट्टी को भुरभुरी बनाएं। अंतिम जोताई से पहले 50 टन प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी हुई गोबर की खाद (FYM) डालें और अच्छी तरह से मिलाएं।
  • फिर ब्लेड हैरो या लेज़र लेवलर से खेत को समतल करें। लेज़र लेवलिंग सिंचाई जल संरक्षण के लिए एक उपयोगी तकनीक है।
  • गड्ढों का आकार सामान्यतः 45cm x 45cm x 45cm रखा जाता है। इन्हें ऊपर की मिट्टी में 10 किलोग्राम FYM, 250 ग्राम नीम खली और 20 ग्राम कार्बोफ्यूरॉन मिलाकर भरें।
  • जहां नेमाटोड की समस्या होती है, वहां नेमाटीसाइड और फ्यूमिगेंट भी गड्ढों में डालें।
  • गड्ढों को कुछ समय तक धूप में खुला छोड़ने से हानिकारक कीट मरते हैं, मिट्टी के रोग नष्ट होते हैं और हवा का संचार बढ़ता है।
  • यदि मिट्टी क्षारीय हो और pH 8 से अधिक हो तो गड्ढों में कार्बनिक पदार्थ मिलाएं। पर्लाइट (Perlite) डालने से मिट्टी की हवादारी और जलनिकास बेहतर होता है।
  • गड्ढों के बजाय खाई (furrow) में रोपाई करना भी एक विकल्प है, जो मिट्टी के प्रकार और स्थिति पर निर्भर करता है।

केले के पोधो की रोपाई (Planting)

केले की रोपाई मई-जून या सितंबर-अक्टूबर में की जा सकती है। एकल 'सकर' (sucker) को छोटे गड्ढों में सीधे लगाया जाता है, जिससे लगभग 5 सेमी कंद मिट्टी से ऊपर रह जाए। मिट्टी को कंद के चारों ओर दबा दें ताकि हवा का खाली स्थान न रहे।

  • रोपाई वर्षभर की जा सकती है, लेकिन भारी वर्षा या कड़क सर्दी में नहीं करनी चाहिए।
  • आदर्श समय अक्टूबर-नवंबर (मानसून के बाद) होता है।
  • यदि सिंचाई उपलब्ध है तो फरवरी-मार्च में भी रोपाई की जा सकती है।
  • प्रति पौधा 25 ग्राम Pseudomonas fluorescence लगाएं।

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रोपाई की विधियां (Method of Planting)

1. गड्ढा विधि (Pit Method)

- यह पद्धति बागवानी प्रणाली में अपनाई जाती है।

- 60cm x 60cm x 60cm के गड्ढे खोदकर, मिट्टी, रेत और FYM को 1:1:1 अनुपात में भरते हैं।

- 'सकर' को गड्ढे के बीच में लगाते हैं और मिट्टी को दबाकर मजबूती से भरते हैं।

- दक्षिण भारत में इसे सालभर अपनाया जा सकता है, पर गर्मियों में नहीं।

- यह विधि श्रमसाध्य और महंगी है, लेकिन गहराई पहले से तय होने से अतिरिक्त मिट्टी भरने की जरूरत नहीं होती।

2. खाई विधि (Furrow Method)

- गुजरात और महाराष्ट्र में लोकप्रिय।

- 30-40 सेमी गहरी खाइयाँ बनाई जाती हैं।

- 'सकर' को उचित दूरी पर लगाकर उसके चारों ओर FYM और मिट्टी मिलाकर दबाया जाता है।

- इसमें बार-बार मिट्टी चढ़ाने (earthing up) की जरूरत होती है।

3. ट्रेंच विधि (Trench Planting)

- तमिलनाडु के कावेरी डेल्टा क्षेत्र में अपनाई जाती है।

- धान की तरह खेत को पानी से तैयार कर 'गेज व्हील' से समतल किया जाता है।

- पानी निकालने के बाद अगले दिन रोपाई की जाती है।

- एक हफ्ते बाद 15 सेमी गहरी खाइयाँ बनाई जाती हैं।

- हर महीने खाइयाँ गहरी की जाती हैं, जब तक पौधों में 1-3 पत्तियाँ न आ जाएं।

- बारिश में कुछ खाइयों को जल निकासी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

केले की खेती में पोषण प्रबंधन 

केला एक ऐसा फसल है जिसे भारी मात्रा में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, जो मिट्टी से आंशिक रूप से ही प्राप्त हो पाते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर तय की गई आवश्यकता इस प्रकार है:

- गोबर की खाद (FYM): 10 किलोग्राम प्रति पौधा

- नाइट्रोजन (N): 200–250 ग्राम प्रति पौधा

- फॉस्फोरस (P): 60–70 ग्राम प्रति पौधा

- पोटाश (K): 300 ग्राम प्रति पौधा

प्रति मीट्रिक टन उपज के लिए पोषक तत्व आवश्यकता:

- नाइट्रोजन: 7–8 किग्रा

- फॉस्फोरस: 0.7–1.5 किग्रा 

- पोटाश: 17–20 किग्रा

परंपरागत रूप से किसान यूरिया का अधिक उपयोग करते हैं, जबकि फॉस्फोरस और पोटाश की मात्रा कम देते हैं। यूरिया को 3 से 4 बार में बांटकर दिया जाता है।

उर्वरक देने का समय 

- 100 ग्राम नाइट्रोजन प्रति पौधा – इसे 60, 90 और 120 दिन बाद तीन समान भागों में टॉप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिए।

- 100 ग्राम पोटाश और 40 ग्राम फॉस्फोरस पौधारोपण के समय देना आवश्यक है।

- P और K की पूरी मात्रा रोपण के समय देनी चाहिए, जबकि N को तीन हिस्सों में 8–10 सेमी गहरी मिट्टी में रिंग बना कर देना चाहिए।

पोषक तत्व देने की उन्नत पद्धतियां:

- 150 ग्राम नाइट्रोजन वनस्पतिक अवस्था (Vegetative phase) में और

- 50 ग्राम नाइट्रोजन प्रजनन अवस्था (Reproductive phase) में देने से उपज बढ़ती है।

- 25% नाइट्रोजन गोबर खाद और 1 किग्रा नीम खली के रूप में देने से लाभ होता है।

- 25% जैविक नाइट्रोजन + 75% रासायनिक नाइट्रोजन के साथ हरी खाद वाली फसलें (जैसे ढैंचा) उगाने से अच्छी वृद्धि होती है।

फॉस्फोरस (Phosphorus):

- फॉस्फोरस की आवश्यकता तुलनात्मक रूप से कम होती है।

- सुपर फॉस्फेट (Superphosphate) इसका मुख्य स्रोत होता है।

- रॉक फॉस्फेट (Rock Phosphate): 50–95 ग्राम प्रति पौधा रोपण के समय।

- अम्लीय मिट्टी में ट्रिपल सुपर फॉस्फेट या डाय-अमोनियम फॉस्फेट (DAP) दिया जाता है।

- फॉस्फोरस एक बार ही दिया जाता है, और इसकी मात्रा (P₂O₅ के रूप में) मिट्टी के प्रकार पर निर्भर करती है (20–40 ग्राम प्रति पौधा)।

केले के फल की कटाई और उत्पादन

  • केले में उच्च घनत्व वाली रोपाई (High Density Planting - HDP) से अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
  • केले की कटाई फल के आंशिक या पूर्ण परिपक्व होने पर की जाती है, जो कि बाज़ार की मांग पर निर्भर करता है।
  • लंबी दूरी के परिवहन के लिए फलों को 75-80% परिपक्वता पर काटा जाता है।
  • केला एक क्लाइमैक्टरिक फल है, अर्थात् इसे काटने के बाद पकाया जा सकता है।

फसल तैयार होने की अवधि

  • प्राथमिक फसल (Main crop) 12–15 महीनों में तैयार हो जाती है।
  • मुख्य कटाई का मौसम: सितंबर से अप्रैल तक।
  • पुष्पन (flowering) के 90–150 दिनों बाद फल पक जाते हैं, यह किस्म, मिट्टी, मौसम और ऊंचाई पर निर्भर करता है।

कटाई की विधि

  • कटाई उस समय की जाती है जब दूसरे हाथ (second hand) के फल ¾ गोलाई में आ जाएं।
  • पहले हाथ (first hand) से 30 सेमी ऊपर से तेज़ हँसिए (sharp sickle) की मदद से गुच्छा काटा जाता है।
  • अगर आवश्यक हो तो कटाई को 100–110 दिनों तक पुष्पन के बाद टाला जा सकता है।
  • कटे हुए गुच्छे को गद्देदार ट्रे या टोकरियों में इकट्ठा करके संग्रह स्थल तक लाना चाहिए।
  • कटाई के बाद गुच्छों को प्रकाश से दूर रखें, क्योंकि इससे पकने की प्रक्रिया तेज़ हो जाती है।
  • स्थानीय बिक्री के लिए कई बार फल डंठल सहित ही खुदरा विक्रेताओं को बेचे जाते हैं।

प्रजातियों के अनुसार फसल अवधि

बौनी किस्में (Dwarf varieties): 11–14 महीने में तैयार होती हैं।

ऊँची किस्में (Tall varieties): 14–16 महीने में पकती हैं।

रैटून फसल (Ratoon Crop) प्रणाली

मुख्य फसल काटने के बाद केवल पत्तियां काटी जाती हैं, पौधों की संरचना बरकरार रखी जाती है ताकि रैटून फसल (अगली फसल) तैयार की जा सके।

इससे पोषण में सुधार होता है और 15% सिंचाई की बचत होती है।

बेहतर गुणवत्ता के लिए प्रत्येक गुच्छे में केवल 7–8 फल ही रखें।

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