बतख पालन के साथ धान, अजोला की खेती करके किसान कमा सकते है अच्छा मुनाफा
By : Tractorbird News Published on : 28-Feb-2025
बतख पालन आज के समय में किसानो के लिए अच्छी कमाई का जरिया बन गया है। नई तकनीक और वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी का उपयोग करके खेती की जाए तो किसानों को काफी लाभ मिलता है।
कम समय और कम जगह में अधिक उत्पादन संभव होता है, जिससे किसानों की आय बढ़ती है। इसलिए आज बहुत से किसान तकनीकी दृष्टिकोण को अपनाकर खेती करना चाहते हैं।
कृषि वैज्ञानिक और अन्य सलाहकार भी किसानों को इन नई तकनीकों का लाभ उठाने के लिए कहते हैं।
आज हम एक ऐसी खास तकनीक के बारे में बात करेंगे जिसमें एक ही खेत में बतख, धान और अजोला सब कुछ एक साथ खेला जा सकता है।
आइए देखें, यह तकनीक कैसे काम करती है और इससे किसानों को क्या लाभ मिलता है।
तीनों खेती एक साथ करने से होती कम पानी की आवश्यकता
- धान और अजोला की खेती के लिए ज्यादा पानी की आवश्यकता होती है, और बतख पालन के लिए भी पानी की जरूरत होती है।
- जब बतखें जैविक धान की खेती के साथ पालन की जाती हैं, तो खाद, शाकनाशी और कीटनाशकों की आवश्यकता खत्म हो जाती है।
- बतखों का मल पानी में गिरने से यह धान के लिए प्राकृतिक खाद का काम करता है, जिससे खाद की कमी पूरी हो जाती है।
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अजोला से भूमि में होती है नाइट्रोजन फिक्स
- अजोला का उपयोग हरी खाद के रूप में किया जाता है, जो वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिर कर इसे पत्तियों में जमा करता है।
- अजोला में 3.5 प्रतिशत नाइट्रोजन और विभिन्न कार्बनिक पदार्थ होते हैं, जो मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाते हैं और पैदावार में वृद्धि करते हैं।
- यह तकनीक अब दक्षिण-पूर्व एशिया में किसानों की आय बढ़ाने, पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने और खाद्य सुरक्षा में सुधार के लिए अपनाई जा रही है।
खेत में खाद डालने की आवश्यकता हो जाती है ख़त्म
- बतख पालन के लिए घास के मैदान और तालाब जैसे प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किया जाता है।
- धान की कटाई के बाद, बतखों के लिए गिरे हुए दाने, कीड़े, घोंघे, केंचुए, छोटी मछलियां और शैवाल जैसे जलीय पौधे भोजन का काम करते हैं।
- बतखें खेतों में कीड़े और खरपतवार खाकर इन्हें साफ करती हैं और अपना मल छोड़कर प्राकृतिक खाद प्रदान करती हैं। इस कारण रासायनिक खादों और कीटनाशकों का प्रयोग भी कम हो जाता है।
किसान कमा सकते है अधिक लाभ
- बतख पालन, धान और अजोला की खेती से मीथेन उत्सर्जन कम होता है और ग्लोबल वार्मिंग में भी कमी आती है।
- केंद्रीय चावल अनुसंधान संस्थान की सहायता से कई स्थानों पर इस विधि से किसानों की आय में 50 प्रतिशत तक वृद्धि हुई है। इस तकनीक के इस्तेमाल के लिए विभिन्न कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।