कृषि विश्वविद्यालय ने विकसित की गेहूं की नई पछेती किस्म - WH 1309

By : Tractorbird Published on : 14-Nov-2025
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देश में बढ़ते तापमान और बदलते मौसम के कारण गेहूं उत्पादन पर लगातार प्रभाव पड़ रहा है। ऐसे समय में चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय (CCSHAU), हिसार के वैज्ञानिकों ने किसानों के लिए राहतभरी खबर दी है। 

विश्वविद्यालय के गेहूं एवं जौ अनुभाग के वैज्ञानिकों ने “WH 1309” नामक नई पछेती गेहूं किस्म विकसित की है, जो न केवल अधिक पैदावार देती है बल्कि गर्मी के प्रति भी अधिक सहनशील है। इस किस्म की अनुशंसा हरियाणा राज्य बीज उप-समिति द्वारा की गई है।

गेहूं उत्पादन बढ़ाने की दिशा में नया कदम

देशभर में गेहूं की उत्पादकता और गुणवत्ता को सुधारने के लिए कृषि वैज्ञानिक लगातार नई किस्मों का विकास कर रहे हैं। WH 1309 इसी दिशा में एक अहम उपलब्धि है। यह किस्म विशेष रूप से उन क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है जहां धान की कटाई में देरी, जलभराव, या अन्य कारणों से गेहूं की बुवाई देर से होती है।

विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बी.आर. काम्बोज के अनुसार, हरियाणा के लगभग 15 से 20 प्रतिशत क्षेत्र में गेहूं की बिजाई में देरी हो जाती है। ऐसे में WH 1309 किस्म किसानों के लिए वरदान साबित होगी क्योंकि यह देरी से बुवाई में भी उच्च उत्पादन क्षमता बनाए रखती है।

गर्मी और जलवायु परिवर्तन के प्रति सहनशील

जलवायु परिवर्तन के कारण मार्च माह में तापमान में वृद्धि होती है, जिससे पारंपरिक गेहूं किस्मों की पैदावार प्रभावित होती है। लेकिन WH 1309 में ऐसी आनुवंशिक सहनशीलता (Heat Tolerance) है कि तापमान बढ़ने पर भी इसकी उपज पर कोई खास असर नहीं पड़ता। यह इसे आने वाले समय की फसल बनाता है।

WH 1309 गेहूं किस्म की उत्पादन क्षमता

सिंचित परिस्थितियों में WH 1309 ने औसतन 55.4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की उपज दर्ज की, जबकि इसकी अधिकतम उपज 64.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पहुंची।

हरियाणा के विभिन्न जिलों में किए गए फील्ड ट्रायल में इस किस्म की औसत उपज 54.3 क्विंटल प्रति हेक्टेयर रही, जो WH 1124 किस्म की तुलना में 12.7 प्रतिशत अधिक है।

जनवरी के पहले सप्ताह तक इसकी बुवाई की जा सकती है और इस अवधि में भी इसकी पैदावार 40 से 50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक रही है। इसके दाने मोटे, चमकीले और उच्च गुणवत्ता वाले होते हैं, जो बाजार में अच्छी कीमत दिला सकते हैं।

रोग प्रतिरोधक और जैविक खेती के लिए उपयुक्त

यह नई किस्म पीला रतुआ, भूरा रतुआ तथा अन्य सामान्य रोगों के प्रति प्रतिरोधक है।

साथ ही, इसे लवणीय मिट्टी वाले क्षेत्रों में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।

इसकी विशेषता है कि यह जैविक खेती के लिए भी उपयुक्त है, जिससे किसानों को रासायनिक खादों पर निर्भरता कम करनी होगी।

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WH 1309 की बुवाई, बीज दर और खाद की सिफारिशें

अनुसंधान निदेशक डॉ. राजबीर गर्ग के अनुसार, WH 1309 की बिजाई का उचित समय 1 दिसंबर से 20 दिसंबर तक है।

  • बीज की मात्रा: 125 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
  • खाद प्रबंधन (प्रति हेक्टेयर):
  • नाइट्रोजन – 150 किग्रा
  • फास्फोरस – 60 किग्रा
  • पोटाश – 30 किग्रा
  • जिंक सल्फेट – 25 किग्रा

इन अनुशंसाओं का पालन करने से किसान अधिकतम उपज प्राप्त कर सकते हैं।

WH 1309 किस्म की प्रमुख विशेषताएँ

कृषि महाविद्यालय के अधिष्ठाता डॉ. एस.के. पाहुजा ने बताया कि WH 1309 की कई विशेषताएँ इसे अन्य किस्मों से अलग बनाती हैं –

  • बालियाँ निकलने का समय: 83 दिन में
  • पकने का समय: 123 दिन में
  • पौधे की ऊँचाई: लगभग 98 सेंटीमीटर (गिरने की संभावना बहुत कम)
  • बालियों का रंग: भूरा और लंबाई अधिक
  • दाने: मोटे, भरपूर और आकर्षक
  • प्रोटीन सामग्री: 13.2%
  • हेक्टोलीटर वजन: 81.9
  • अवसादन मान (Sedimentation Value): 54 मिली

यह गेहूं न केवल पौष्टिक है, बल्कि चपाती और बेकरी उत्पादों के लिए भी उत्कृष्ट गुणवत्ता प्रदान करता है।

इस उपलब्धि के पीछे वैज्ञानिकों की टीम

WH 1309 किस्म को विकसित करने में विश्वविद्यालय के गेहूं एवं जौ अनुभाग के कई वैज्ञानिकों का योगदान रहा।

इस टीम में शामिल हैं –

डॉ. विक्रम सिंह, एम.एस. दलाल, ओ.पी. बिश्नोई, दिव्या फोगाट, योगेंद्र कुमार, हर्ष सोमवीर, वाई.पी.एस. सोलंकी, राकेश कुमार, गजराज दहिया, आर.एस. बेनीवाल, भगत सिंह, रेणु मुंजाल, प्रियंका, पवन कुमार और शिखा।

इन वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से यह उच्च उपज देने वाली, पछेती बुवाई के लिए अनुकूल गेहूं किस्म विकसित की जा सकी है, जो आने वाले वर्षों में हरियाणा ही नहीं, बल्कि पूरे उत्तर भारत के किसानों के लिए वरदान साबित होगी।

WH 1309 गेहूं किस्म किसानों के लिए एक आधुनिक, टिकाऊ और लाभकारी विकल्प है। यह किस्म जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम है, अधिक उपज देती है, रोग प्रतिरोधक है और गुणवत्ता में भी बेहतरीन है।

ऐसी नवाचार-आधारित शोध पहलें भारत के कृषि क्षेत्र को सशक्त बनाने की दिशा में एक बड़ा कदम हैं।

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