केसर भारतीय कृषि में एक विशेष महत्व रखता है। भारत दुनिया के कुछ प्रमुख केसर उत्पादक देशों में शामिल है। यह मसाला केवल आर्थिक दृष्टि से ही मूल्यवान नहीं है, बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी इसका अपना अलग स्थान है।
भारत में केसर की खेती का एक लंबा और समृद्ध इतिहास है, जो कृषि परंपरा और संस्कृति से गहराई से जुड़ा हुआ है।
यह लेख भारत में केसर की खेती के इतिहास, अनुकूल मौसम, मिट्टी, बुवाई की विधि, कटाई की प्रक्रिया, आर्थिक महत्व और भविष्य की संभावनाओं के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी देता है।
केसर को उगाने के लिए ठंडा और समशीतोष्ण जलवायु सबसे उपयुक्त मानी जाती है। इसकी खेती सामान्यतः समुद्र तल से 1500 से 2800 मीटर ऊँचाई वाले क्षेत्रों में की जाती है।
यदि अक्टूबर-नवंबर के दौरान अत्यधिक बर्फबारी हो जाए तो फसल को नुकसान हो सकता है। फूल आने की अवस्था के दौरान मौसम सूखा और धूप वाला हो तो उत्पादन अच्छा मिलता है।
प्रति दिन 8 से 11 घंटे की धूप आवश्यक है। वे स्थान जहाँ गर्मियों में लगभग 300-400 मिमी वर्षा होती है और सर्दियों में हल्की बर्फबारी होती है, वहाँ केसर की खेती लाभदायक होती है।
रेतली दोमट या चिकनी मिट्टी को केसर की खेती के लिए सबसे आदर्श माना जाता है। मिट्टी का pH स्तर 6.8 से 7.8 होना चाहिए।
यदि मिट्टी में देसी खाद के साथ थोड़ी रेत मिला दी जाए तो मिट्टी नरम और जल निकास योग्य बनी रहती है। अधिक नमी वाली मिट्टी में केसर के कंद सड़ सकते हैं, इसलिए मिट्टी में कैल्शियम कार्बोनेट उचित मात्रा में होना आवश्यक है।
अप्रैल-मई में खेत की तैयारी करनी चाहिए। खेत को 3-4 बार जोतकर मिट्टी को भुरभुरा बनाएं। जमीन को उठे हुए बेड (लगभग 2×1 मीटर) के रूप में तैयार किया जाता है तथा चारों ओर पानी निकासी के लिए नालियाँ बनाई जाती हैं।
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1. कश्मीरी मोगरा केसर – दुनिया की सबसे महंगी केसर, जिसकी कीमत प्रति किलो 3 लाख रुपये तक हो सकती है। इसकी खेती जम्मू-कश्मीर के पंपोर और किश्तवाड़ क्षेत्रों में होती है। लगभग 75,000 फूलों से केवल 450 ग्राम केसर प्राप्त होता है।
2. अमेरिकन केसर – यह किस्म राजस्थान जैसे शुष्क क्षेत्रों में भी उगाई जा सकती है। इसके पौधे 4-5 फीट तक बढ़ते हैं। इसकी कीमत कश्मीरी केसर से कम होती है, लेकिन यह अधिक क्षेत्रों में आसानी से उगाई जा सकती है।
केसर एक बहुवर्षीय फसल है। इसकी बुवाई जुलाई से अगस्त के पहले सप्ताह तक की जाती है। बुवाई के लिए 2.5 से 5 सेंटीमीटर आकार के कंद प्रयोग किए जाते हैं, जो 8-10 वर्षों तक फूल दे सकते हैं। रोपण से पहले कंदों को 1 लीटर पानी में 0.5 ग्राम कॉपर सल्फेट मिलाकर उपचारित करें।
बुवाई 6-7 सेंटीमीटर गहराई पर की जाती है, पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर और कतारों में 20 सेंटीमीटर की दूरी रखें।
अंतिम जुताई के समय प्रति हेक्टेयर 20 टन देसी खाद डालें। इसके साथ ही 90 किलो नाइट्रोजन, 60 किलो फास्फोरस और 60 किलो पोटाश दें।
फास्फोरस और पोटाश पूरी मात्रा में तथा नाइट्रोजन का एक चौथाई हिस्सा बुवाई के समय डालें। बची हुई नाइट्रोजन को 20-20 दिनों के अंतराल पर 3-4 बार दें।
केसर को लगभग 300-400 मिमी वर्षा की आवश्यकता होती है। यदि बुवाई के बाद हल्की बरसात हो जाए, तो सिंचाई की जरूरत नहीं होती। अन्यथा 15 दिनों के अंतर पर 2-3 बार हल्की सिंचाई करें। ध्यान रखें कि खेत में पानी ठहरा न रहे।
उत्तम उत्पादन के लिए खेत को खरपतवार रहित रखें। इसके लिए 2-3 बार निराई-गुड़ाई आवश्यक है। फरवरी-मार्च में पौधों की जड़ों के पास की मिट्टी को हल्का ढीला करें। पहली निराई जुलाई के अंत तक और दूसरी सितंबर में करनी चाहिए।
ऊँचाई वाले क्षेत्रों में फूलों का आना सामान्यतः सितंबर से शुरू होता है, जबकि निचले क्षेत्रों में यह प्रक्रिया अक्टूबर मध्य से दिसंबर तक चलती है। जब फूलों की पंखुड़ियाँ लाल या भगवा रंग की दिखाई देने लगें, तब वे तोड़ने योग्य हो जाते हैं। फूलों को सुबह के समय हाथ से तोड़ा जाता है।
प्रत्येक फूल में तीन लाल-नारंगी रंग के महीन तंतु होते हैं, जिन्हें ही असली केसर माना जाता है। इनके अलावा तीन पीले तंतु भी होते हैं जिन्हें केसर नहीं माना जाता।
फूलों को तोड़ने के बाद उन्हें छाया में सुखाया जाता है। फिर सावधानी से लाल तंतुओं को अलग किया जाता है। इन्हें उनकी गुणवत्ता के आधार पर मोगरा, लच्छी और गुच्छी जैसी श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है।
ध्यान देने वाली बात है कि केसर एक अत्यंत मेहनत वाली फसल है – मात्र 1 किलोग्राम सूखे केसर के लिए लगभग 1.5 लाख फूलों की आवश्यकता होती है।