चाय की खेती में लगने वाले प्रमुख रोग

By : Tractorbird Published on : 27-May-2025
चाय

चाय की खेती भारत में पहाड़ी क्षेत्रों में अधिक की जाती हैं। भारत चाय उत्पादन में दुनिया के अग्रणी देशों में से एक है। यहाँ चाय का उत्पादन देश की अर्थव्यवस्था, संस्कृति और रोजगार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। 

भारत के चाय उत्पादन में कई कारकों के कारण थोड़ी कमी भी आ रही है, इनमें से सबसे प्रमुख कारक इसमें लगने वाले रोग हैं। रोगों के प्रभाव के कारण चाय के उत्पादन में बहुत कमी आती है। इस लेख में हम आपको चाय की खेती में लगने वाले प्रमुख रोगों के बारे में जानकारी देंगे।

चाय की खेती में लगने वाले रोगों के लक्षण और प्रबंधन 

चाय की खेती कई रोगों से प्रभावित होती है जिससे की चाय किसानों को काफी नुकसान होता है, अगर समय रहते इन रोगों को नियंत्रित कर लिया जाए तो काफी हद तक इन नुकसानों को कम किया जा सकता है। नीचे इन रोगों के लक्षण और प्रबंधन के उपाय निम्नलिखित हैं - 

ब्लिस्टर ब्लाइट – एक्सोबैसिडियम वेक्सन्स

  • चाय की खेती में ब्लिस्टर ब्लाइट रोगों से काफी नुकसान हो सकता है। रोग के प्रभाव से पत्तियों पर छोटे पीले या गुलाबी रंग के गोल धब्बे दिखाई देते हैं, जो बढ़कर लगभग 2.5 सेंटीमीटर व्यास के हो जाते हैं। 
  • ब्लिस्टर ब्लाइट से प्रभावित पत्तियों की ऊपरी सतह पर ये धब्बे हल्के भूरे रंग के और धंसे हुए दिखते हैं, जबकि निचली सतह पर ये उभरे हुए होते हैं और फफूंदी के कारण फफोले जैसे सूजन बनाते हैं। 
  • पत्तियों के निचले हिस्से पर सफेद पाउडर जैसी फफूंद की परत बन जाती है। जब ये धब्बे अधिक संख्या में हो जाते हैं, तो पत्तियों में मुड़ाव (कर्लिंग) आ जाता है। 
  • जब यह रोग कोमल और नाजुक डंठलों तक फैलता है, तो प्रभावित भाग सूख जाते हैं। इससे पत्तियों की उपज घट जाती है और चाय की झाड़ी की ताकत पर असर पड़ता है। 

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रोग प्रबंधन के उपाय

  • इस रोग से प्रभावित पौधे के भागों को हटाकर नष्ट कर देना चाहिए।
  • खड़ी चाय में रोग का प्रकोप होने पर कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (Copper Oxychloride) 0.25% का छिड़काव प्रभावी रहता है।
  • जून से सितंबर तक प्रत्येक 5 दिन के अंतराल पर और अक्टूबर से नवंबर तक 11 दिन के अंतराल पर 210 ग्राम कॉपर ऑक्सीक्लोराइड + 210 ग्राम निकल क्लोराइड प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने से आर्थिक रूप से नियंत्रण पाया जा सकता है।
  • साथ ही, साप्ताहिक अंतराल पर सिस्टमिक कीटनाशकों, जैसे एटेमी 50 एसएल (Atemi 50 SL) 400 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर छिड़कना भी प्रभावी है।

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