गेहूँ की फसल में लगने वाले घातक रोग

By : Tractorbird News Published on : 15-Feb-2024
गेहूँ

रबी के मौसम में गेहूँ की खेती बड़े पमाने पर की जाती है। गेहूँ की फसल को ठन्डे तापमान की आवश्यकता होती है। फसल कुछ हद तक पला को भी सहन कर सकती है। गेहूँ की फसल में कई रोगो का भी खतरा रहता है। रोग लगने पर फसल की उपज में बहुत असर पड़ता है। 

आज के इस लेख में हम आपको गेहूँ की फसल में लगने वाले प्रमुख रोगो के बारे में जानकारी देंगे जिससे की आप समय से अपनी फसल में रोगो का प्रकोप होने पर उपचार कर सके। 

1. भूरा रतुआ रोग

  • गेहूँ का ये रोग पक्सीनिया रिकोंडिटा ट्रिटिसाई नामक कवक से होता है तथा सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है। 
  • इस रोग की शुरुआत उत्तर भारत के हिमालय तथा दक्षिण भारत की निलगिरी पहाड़ियों से शुरू होता है एवं वहां पर जीवित रहता है तथा वहाँ से हवा द्वारा मैदानी क्षेत्रों में फैलकर गेहूं की फसल को संक्रमित करता है। 
  • इस रोग के लक्षण पत्तियों पर दिखाई देते है प्रारम्भ में इस रोग के लक्षण नारंगी रंग के सुई की नोक के बिन्दुओं से शुरू होते है। 
  • बाद में ये घने होकर पूरी पत्तियों पर फैल जाते है। गर्मी होने पर ये धब्बे पत्तियों की सतह पर काले रंग में दिखाई देते है। 

2. पीला रतुआ रोग यानि की येलो रस्ट     

  • पीला रतुआ रोग पक्सीनिया स्ट्राईफारमिस कवक के द्वारा होता है। 
  • रोग के पहले लक्षण पत्तियों की उपरी सतह पर पीले धारियों के रूप में दिखाई देते हैं, जो बाद में पूरी पत्तियों को पीला कर देते हैं, साथ ही जमीन पर पीला पाउडर गिरने लगता है। 
  • गेहूं में इस स्थिति को पीला रतुआ कहते हैं। फसल में बाली नहीं आती अगर यह रोग कल्ले निकलने वाली स्थिति या इससे पहले आता है। 
  • उत्तरी हिमालय की पहाड़ियों से उत्तरी मैदान तक यह रोग फैलता है | तापमान बढ़ने पर यह रोग कम हो जाता है और पत्तियों पर पीली धारियां काली हो जाती हैं।

ये भी पढ़ें : गेहूं की फसल में किसान कैसे करे रतुआ रोग की रोकथाम?

3. गेहूँ का तना रतुआ या काला रतुआ रोग 

  • इस रोग का कारण पक्सीनिया ग्रैमिनिस ट्रिटिसाई कवक है। निलगिरी तथा पलनी पहाड़ियों से यह बीमारी शुरू होती है, और यह दक्षिण और मध्य क्षेत्रों में अधिक होता है। 
  • यह रोग उत्तरी क्षेत्र में फसल पकने के समय आता है। इसलिए इसका प्रभाव बहुत कम है | यह बीमारी अक्सर 20 डिग्री से अधिक तापमान पर फैलती है 
  • इस बीमारी का लक्षण चाकलेट की तरह काला होना है जो पत्तियों और तने पर दिखाई देता है नवीनतम दक्षिणी और मध्य प्रजातियाँ इस बीमारी से बचती हैं। लेकिन लोक-1 प्रजातियों में यह बीमारी बहुत आम है।           

तीनों रतुआ रोगों का इलाज कैसे करे?

  • सबसे पहले बुवाई के समय इन रोगों से प्रतिरोधी बीजों की ही बुवाई करें यानि की बुवाई के लिए  उन्नत प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग करें ।
  • रोग की रोकथाम के लिए बुवाई से पहले बीज को थाइरम 2.5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए। 
  • खड़ी फसल में रोग का प्रकोप दिखाई देने पर रोकथाम हेतु खड़ी फसल में प्रोपिकोनोजोल 25 ई.सी. 0.1 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें। 

गेहूं का करनाल बंट रोग 

  • 1931 में करनाल (हरियाणा) से पहली बार यह बीमारी रिपोर्ट की गई थी, और आज यह अन्य देशों में भी पाया जाता है। 
  • यह बीमारी भारत में अधिक तापमान तथा उष्ण जलवायु वाले राज्यों जैसे कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात तथा मध्यप्रदेश में नहीं होती; इसके बजाय, यह जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखंड के मैदानी क्षेत्रों, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश तथा उत्तरी राजस्थान में अधिक होती है। 
  • इस बीमारी का कारण टिलेसिया इंडिका कवक है। यह रोगजनक मृदा में जीवित रहता है और संक्रमित बीज इस बीमारी को नए स्थानों में फैलाता है। 
  • इस बीमारी से दानों में काला चूर्ण बन जाता है और उनकी अंकुरण क्षमता कम हो जाती है। यदि गेहूं का आयात करने वाले देशों में यह बीमारी नहीं है, तो वे गेहूं को पुनः करनाल बंट से मुक्त करने पर जोर देते हैं, जो अंतर्राष्ट्रीय अनाज निर्यात पर असर डालता है।

रोग का उपचार  

  • इस रोग कि रोकथाम के लिए बीज को थाइरम 2.5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित कर बोयें। 
  • उन्नत प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग करें। 
  • रोकथाम हेतु खड़ी फसल में प्रोपिकोनोजोल 25 ई.सी. 0.1 प्रतिशत घोल का छिड़काव डेन बनने की अवस्था में करें। 

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