गेहूं भारत की प्रमुख फसल है, जिसकी खेती सिर्फ सर्दियों में ही की जाती है। यही समय फसल के लिए होता है, क्योंकि इस समय तरह-तरह के कीट और रोग लगने का खतरा बना रहता है। ऐसे में किसानों को फसल की निगरानी बढ़ानी होगी, ताकि समय पर कीट-रोगों की पहचान करके उनकी रोकथाम की जा सके।
इस लेख में हम किसानों को बताएंगे कि फसल में किस समय में कौन-सा रोग लग सकता है, इस रोग की पहचान कैसे होगी और कैसे इसका समाधान करना है।
गेहूं की फसल में सबसे ज्यादा रतुआ रोग का खतरा बना रहता है। इसे रस्ट, रोली या गेरुआ रोग भी कहते हैं। ये तीन तरह का होता है पीला रतुआ, भूरा रतुआ और काला रतुआ। ये एक फंगी रोग है, जो पहाड़ी इलाकों से हवा द्वारा मैदानी इलाकों में फैलता है और गेहूं की फसल को संक्रमित कर देता है। इस रोग में गेहूं की पत्तियां जल्दी सूखने लगती है।
यदि सर्दियों में भी तापमान गर्म है तो नारंगी रंग के धब्बे पत्तियों पर दिखते हैं और पत्तियों की निचली सतह कुछ काली हो जाती है। इस रोग के लगने पर गेहूं का दाना तो हल्का बनता ही है, उत्पादन भी 30 फीसदी तक कम हो सकता है। कुछ इसी तरह पीला रतुआ और काला रतुआ रोग होता है, जिसकी पहचान करके तुरंत नियंत्रण करना बेहद जरूरी है।
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पीला रतुआ का प्रकोप फसल में ज्यादा होता है। पीला रतुआ रोग का प्रकोप पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश में ज्यादा दिखाई देता है।
पीला रतुआ रोग के लक्षण पत्तियों, कलमों और बालों पर दिखते है। रोग मुख्य रूप से पत्तियों पर दिखाई देता है, हालांकि पत्ती के आवरण, डंठल और बालियां भी प्रभावित हो सकती हैं, नींबू के पीले रंग के छोटे-छोटे दाने लंबी पंक्तियों में व्यवस्थित होते हैं जो धारियों का पैटर्न देते हैं जो पर्यावरणीय परिस्थितियों के आधार पर जनवरी या मध्य फरवरी के अंतिम सप्ताह में दिखाई देते हैं।
बाद के चरणों में पत्तियों की निचली सतह पर फीकी काली धारियाँ बन जाती हैं। प्रभावित पौधों में दाने हल्के और सिकुड़े हुए हो जाते हैं जिससे उपज में भारी कमी आती है।
किसान भाइयों को फसल में यदि पीले रतुए के लक्षण दिखाई दें तो 200 मिली लीटर प्रोपिकोनाजोल 25 ई.सी. दवाई प्रति एकड़ 200 लीटर पानी में मिलाकर साफ मौसम में छिड़काव करना चाहिए।
यदि एक छिड़काव का असर हो तो 15 दिन के बाद दूसरा छिड़काव करना चाहिए। छिड़काव इस ढंग से करें कि दवा पौधों के निचले ऊपरी भाग में पहुंच जाए।