काचरी (Mango Melon), जिसे वैज्ञानिक नाम Cucumis pubescens से जाना जाता है, कुष्माण्ड परिवार की एक वार्षिक बेलधारी फसल है।
यह देश के विभिन्न क्षेत्रों में कई स्थानीय नामों से पहचानी जाती है—जैसे काचरिया, काचर, मट-काचर, सैंद (छोटी/बड़ी), पथेया, गोरड़ी आदि। इसके पकने पर फल खट्टे-मीठे स्वाद के लिए प्रसिद्ध होते हैं और ये स्वादिष्ट, गुणकारी तथा पोषक तत्वों से भरे होते हैं।
फलों का उपयोग विभिन्न तरह की सब्जी, चटनी और अचार बनाने में होता है। इन्हें सुखाकर सालभर के लिए भंडारित किया जाता है।
कुछ विधियों में फल बिना छिले सुखाते हैं, फिर इन्हें सब्जियों, अचारों या मसालेदार चूर्ण (पाउडर) में उपयोग किया जाता है।
आधुनिक उन्नत किस्मों की वजह से किसानों को एक फसल में दो पैदावार, कम लागत और अधिक लाभ मिल रहा है, इसलिए व्यावसायिक खेती में इन किस्मों को अपनाना फायदेमंद है।
काचरी एक गर्म-सीमांत और शुष्क जलवायु वाली फसल है, जो अधिक तापमान और कम बारिश (250–300 मिमी) में भी अच्छी पैदावार देती है।
बीज अंकुरण के लिए 20–22 °C तथा पौधों की वृद्धि व फल जमाव के लिए 32–38 °C आदर्श होता है। उच्च तापमान (45–48 °C) वाले मरूस्थलीय क्षेत्रों में भी यह सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है।
यह फसल लगभग किसी भी मिट्टी में उपज सकती है, लेकिन बलुई दोमट मिट्टी उत्तम होती है। इसके लिए जल निकास का उचित इंतजाम जरूरी है और मिट्टी का pH 5.5–6.5 होना चाहिए।
मानसून के पहले—जून में—गहरी जुताई करें। इस दौरान गोबर की खाद मिलाकर दूसरी बार जुताई एवं पाटा करके खेत तैयार करें।
कीट बचाव के लिए कीटनाशक छिड़काव पाटा लगाने से पहले करना चाहिए। कटाई के पश्चात नवम्बर–दिसंबर में अवशेष व खरपतवार मिट्टी में मिला दें, जिससे सर्दियों में वर्षा का जल जमा रहता है। ग्रीष्मकालीन बुवाई के लिए जनवरी–फरवरी में दो बार हैरो से जुताई और पाटा करवाएं।
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काचरी (Kachri) की वर्षा आधारित खेती के लिए बुवाई का सबसे उपयुक्त समय जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के अंत तक होता है, जब वर्षा की पर्याप्त मात्रा प्राप्त हो रही हो।
वहीं, सिंचित फसलों के लिए जुलाई और फरवरी माह में बुवाई करना सर्वाधिक लाभकारी सिद्ध होता है।
उन्नत किस्मों हेतु 1–1.5 किग्रा बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। अंकुरण के लिए 1–2 घंटे पानी या नमकयुक्त गर्म पानी में बीज भिगोएँ।
बीजों को गीली टाट की पट्टी में बाँधकर गोबर खाद की गड्ढों में एक रात रखकर फिर सिंचित करें। बुवाई के पहले कैप्टान, थाइरम या बैवेस्टिन (2–3 ग्राम/किग्रा बीज) से उपचारित करें।
प्रति हैक्टेयर: देशी खाद 50 क्विंटल, वर्मीकम्पोस्ट 5 क्विंटल; DAP और SSP 100 किग्रा each; यूरिया व पोटाश 50 किग्रा each; कीटनाशी पाउडर 10 किग्रा।
यूरिया का आधा मात्रा: बुवाई के 18–25 दिन, 30–35 दिन और 45–50 दिन पर तीन भागों में छिड़काव करें। बूंद-बूंद सिंचाई में यूरिया 4–6 भागों में बांटकर दी जाती है। वर्षा आधारित खेती में यूरिया नुक्ता (20 ग्राम/लीटर) का 2% घोल छिड़कना लाभकारी है।
12–25 दिन की अवस्था में निराई-गुड़ाई जरूरी है, साथ में 25–40 दिनों में अतिरिक्त निराई करें। बेल फैली जगह पर घास-फूस की पलवार से नमी बनी रहती है और जमीन ठंडी रहती है, जिससे उत्पादन अच्छा होता है।
उन्नत प्रबंधन से एक पौधे पर 20–23 फल लगते हुए 115–120 क्विंटल/हैक्टेयर तक की पैदावार संभव होती है।