सिसल एक शुष्क क्षेत्रीय पत्ती रेशा उत्पादक पौधा है, जिसकी पत्तियाँ लगभग 1 से 1.5 मीटर लंबी, मोटी और रसीली होती हैं। इनकी सतह पर एक मोम जैसा आवरण होता है, जो इसे मरूद्भिद पौधों की श्रेणी में रखता है।
एक स्वस्थ सिसल पौधा अपने जीवनकाल (10–12 वर्ष) में लगभग 200 से 250 पत्तियाँ उत्पन्न करता है। इससे प्राप्त रेशा मुख्यतः रस्सी, सुतली और विभिन्न प्रकार की कॉर्डेज़ बनाने में काम आता है।
यह लेख भारत में सिसल की खेती से जुड़ी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, तकनीकी विधियों, आर्थिक पहलुओं, चुनौतियों और संभावनाओं पर गहन जानकारी देता है।
सिसल शुष्क जलवायु के लिए उपयुक्त पौधा है। यह 50°C तक का तापमान सहन कर सकता है और 60–125 सेमी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र इसके लिए आदर्श होते हैं।
हालांकि, यह 10°C से 32°C के बीच के तापमान में अच्छी तरह विकसित होता है। ओलावृष्टि इसके पत्तों को नुकसान पहुंचाती है, जिससे रेशा क्षतिग्रस्त हो सकता है।
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सिसल की दो प्रकार की नर्सरी होती हैं:
1. प्राथमिक नर्सरी – यहाँ छोटे बुलबिल या सकर्स लगाकर उनका पोषण किया जाता है। नर्सरी की चौड़ाई 1 मीटर और पौधों के बीच की दूरी 10×7 सेमी होनी चाहिए।
2. माध्यमिक नर्सरी – प्राथमिक नर्सरी से पौधों को मुख्य नर्सरी में स्थानांतरित किया जाता है। रोपण से पहले फफूंदनाशक से उपचारित किया जाता है। यहाँ रोपण दूरी 50×25 सेमी रखी जाती है और हर 11वीं पंक्ति कार्य सुविधा के लिए खाली छोड़ी जाती है।
सीसल की रोपण सामग्री को छायादार स्थान में 30–45 दिनों तक रखा जा सकता है, जिससे रेशा गुणवत्ता पर कोई असर नहीं पड़ता। गर्मियों में 1 घन फीट के गड्ढे जैविक खाद और चूने से भरकर रोपण किया जाता है।
पारंपरिक पंक्ति रोपण (कम घनत्व)
दोहरी पंक्ति रोपण (उच्च घनत्व व मृदा संरक्षण)
2 मीटर + 1 मीटर × 1 मीटर = 6666 पौधे/हेक्टेयर (उच्च घनत्व)
4 मीटर + 1 मीटर × 1 मीटर = 4000 पौधे/हेक्टेयर (कम घनत्व)
पहले तीन वर्षों में पत्तियों की कटाई नहीं होती, इस दौरान अंतर पंक्ति में मटर, लोबिया, काला चना, सफेद मूसली, एलोवेरा, लेमन ग्रास जैसी फसलें ली जा सकती हैं। मिट्टी की नमी बनाए रखने और पोषक तत्व बढ़ाने हेतु मल्चिंग की जाती है।
शुरुआती 45 दिन खरपतवार नियंत्रण के लिए अहम होते हैं। प्रति हेक्टेयर 500 ग्राम मेटोलाक्लोर का उपयोग करके 89.2% तक खरपतवार नियंत्रित किए जा सकते हैं। 3-4 निराई की आवश्यकता होती है।
सिसल की बेहतर वृद्धि के लिए 60:30:60 (N\:P\:K) किग्रा/हेक्टेयर की सिफारिश की जाती है। इसके अतिरिक्त बोरेक्स (20 किग्रा/हे.) और जिंक सल्फेट (15 किग्रा/हे.) का प्रयोग पत्तियों की लंबाई और फाइबर उत्पादन को बढ़ाता है।
सिसल सामान्यतः सिंचाई की मांग नहीं करता, लेकिन ड्रिप सिंचाई से उत्पादन में सुधार देखा गया है। दो सप्ताह के अंतराल पर ड्रिप से सिंचाई करने पर पत्तियाँ लंबी होती हैं। वर्षा ऋतु में जल निकासी की व्यवस्था होना आवश्यक है।
भारत में सामान्यतः 600–800 किग्रा/हे. रेशा प्राप्त होता है। लेकिन आधुनिक तकनीकों और बेहतर प्रबंधन से यह बढ़कर 2000 किग्रा/हे. या अधिक हो सकता है।