जूट की खेती कब की जाती है?
By : Tractorbird Published on : 09-May-2025
जूट एक महत्वपूर्ण रेशेदार फसल है, जो पतले और बेलनाकार तनों वाली होती है। इसके रेशों का इस्तेमाल तिरपाल, बोरे, टाट, रस्सियाँ, दरियाँ, तंबू, निम्न श्रेणी के वस्त्र और कागज बनाने में किया जाता है। यह एक नकदी फसल है, जिससे किसानों को नकद आय होती है।
भारत में यह मुख्यतः पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, उत्तर प्रदेश और उड़ीसा के तराई क्षेत्रों में उगाई जाती है। भारत हर साल लगभग 38 लाख गांठ (प्रत्येक 400 पाउंड की) जूट का उत्पादन करता है, जिसमें से 67% देश में ही उपयोग हो जाता है, 7% किसानों के पास रह जाता है और बाकी जूट बेल्जियम, फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और इटली जैसे देशों को निर्यात किया जाता है।
हालांकि ब्राज़ील, अफ्रीका और अमेरिका में भी इसे उगाने का प्रयास हुआ, पर भारतीय जूट की गुणवत्ता के सामने वे टिक नहीं सके।
जूट की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु और मृदा
- बेहतर जूट उत्पादन के लिए गर्म और आर्द्र जलवायु उपयुक्त मानी जाती है। इसके लिए आदर्श तापमान 25–35°C और आर्द्रता करीब 90% होनी चाहिए।
- हल्की बलुई दोमट मिट्टी, विशेषकर डेल्टा क्षेत्रों की मृदा इसके लिए सबसे उपयुक्त होती है। बंगाल की जलवायु और मृदा जूट की खेती के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है।
जूट के प्रकार और उनके रेशे
जूट के रेशे मुख्यतः दो प्रजातियों से प्राप्त होते हैं: Corchorus capsularis और Corchorus olitorius, जो 'टिलिएसी' कुल से संबंधित हैं।
- भारत और पाकिस्तान में इनकी व्यापक खेती होती है। कुल खेती का तीन-चौथाई भाग कैप्सुलैरिस और शेष ओलिटोरियस के अंतर्गत होता है।
- कैप्सुलैरिस के बीज गहरे भूरे रंग के, पत्तियाँ गोल, रेशे सफेद लेकिन थोड़े कमजोर होते हैं। इसकी खेती ऊँची और नीची दोनों भूमि पर हो सकती है। प्रमुख किस्में: देसीहाट, बंबई डी 154, आर 85 आदि।
- ओलिटोरियस की पत्तियाँ सूई जैसी, बीज काले और रेशे मजबूत व सुंदर होते हैं, परंतु रंग हल्का होता है। इसकी किस्में हैं: तोसाह, चिनसुरा ग्रीन, आरथू आदि।
- रेशे के लिए फसल को पकने से पहले काटा जाता है जबकि बीज के लिए पौधों को पूरी तरह पकने दिया जाता है।
उर्वरक एवं खाद का प्रयोग
प्रति एकड़ लगभग 50 से 100 मन गोबर की खाद या कंपोस्ट और 400 पाउंड लकड़ी/घास की राख दी जाती है।
साथ ही, 30-60 पाउंड नाइट्रोजन (कुछ बीज बुवाई से पहले और शेष बीज अंकुरण के बाद) डालना लाभदायक होता है। चूना और पोटाश का प्रयोग भी फायदेमंद होता है।
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बिजाई का समय और विधि
नीची भूमि में फरवरी में और ऊँची जमीन पर मार्च से जुलाई तक बोआई की जाती है। पारंपरिक तौर पर छिटक विधि से बुवाई होती है, पर अब ड्रिल मशीन का उपयोग भी बढ़ गया है।
प्रति एकड़ 6 से 10 पाउंड बीज लगता है। पौधों की पहली निराई-गुड़ाई तब होती है जब वे 3–9 इंच तक बढ़ जाते हैं, और इसके बाद 2–3 बार और निराई की जाती है।
कटाई और रेशा निकालने की प्रक्रिया
- कटाई फूल झड़ने और फलियाँ बनने के बाद की जाती है। जल्दी या बहुत देर से कटाई करने से रेशे की गुणवत्ता प्रभावित होती है। कटाई के बाद पौधों को सूखने दिया जाता है ताकि पत्तियाँ झड़ जाएं।
- फिर डंठलों को पानी में गलाया जाता है, जिससे रेशा आसानी से निकल सके। यह प्रक्रिया जल की गुणवत्ता और तापमान के अनुसार 2 दिन से लेकर एक महीने तक चल सकती है।
- गलने के बाद, डंठलों से रेशे निकाल कर उन्हें धोया और सुखाया जाता है। फिर ये रेशे जूट प्रेस में ले जाकर गांठों के रूप में तैयार किए जाते हैं।
उत्पादन और उपयोग
- जूट का रेशा आम तौर पर 6–10 फुट लंबा होता है, कुछ विशेष स्थितियों में 14–15 फुट भी हो सकता है। जल्दी निकला रेशा ज्यादा कोमल, चमकदार और मजबूत होता है। इसकी नमी अवशोषित करने की क्षमता अधिक होती है (6–23%)।
- प्रति एकड़ कैप्सुलैरिस से 10–15 मन और ओलिटोरियस से 15–20 मन तक रेशा प्राप्त होता है, जो बेहतर जोताई पर 30 मन तक भी हो सकता है।
- जूट से बोरे, रस्सियाँ, कालीन, पर्दे, सजावटी वस्तुएँ, अस्तर आदि बनाए जाते हैं। डंठल से बारूद बनाने वाला कोयला और कागज बनाने वाली लुगदी भी तैयार की जाती है।