अगर हम कृषि के बारे में सोचते हैं तो सब पहले हमारे दिमाग में मिट्टी आती है। मिट्टी के बिना कृषि असंभव है। संसार के किसी भी भाग में कृषि करने के लिए सबसे पहले मिट्टी का स्वस्थ होना बहुत आवश्यक है। मिट्टी का स्वस्थ होने से मतलब है कि मिट्टी उपजाऊ होनी बहुत आवश्यक है।
जैसे हमें जीवन यापन के लिए हवा, पानी, प्रकाश के साथ पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है उसी प्रकार पौधे भी इन सब चीजों के बिना अपना जीवन चक्र पूरा नहीं कर सकते हैं। इसलिए मिट्टी की उपजाऊ शक्ति का कृषि में सबसे बड़ा और अहम् योगदान है।
कणों के आधार पर मिट्टी (भारत में मिट्टी के प्रकार) को कई वर्गों में बांटा जा सकता है। वैसे तो मिट्टी कई प्रकार की होती है परंतु मिट्टी के निर्माण के लिए 3 तत्वों sand, सिल्ट और क्ले का अहम् योगदान है।
Sand का अर्थ है बालू मतलब की रेतीली, सिल्ट का अर्थ है पथरीला यानि की कंकड़ पथर और clay का अर्थ है चिकनी या क्ले बारीक कणों वाली। कृषि में इन तीनों मिट्टियों का सबसे मुख्य योगदान है। आइए अब भारत में पाए जाने वाली मिट्टी के प्रकारों के बारे में विस्तार से चर्चा करते हैं।
बलुई मिट्टी के कणों का आकार 0.06mm से 2.0mm तक होता है। बलुई मिट्टी/ रेतीली मिट्टी (balui mitti) का रंग हल्का पीला और सुनहरा होता है। कणों का आकार बड़ा होने के कारण मिट्टी में वायु संचारण तो बहुत अच्छा होता है परंतु मिट्टी की जल धारण क्षमता सबसे कम होती है।
मिट्टी के कण मोटे होने के कारण मिट्टी पानी को धारण करके नहीं रख सकती है जिस कारण से पानी मिट्टी की निचली सतह में चला जाता है।
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बलुई मिट्टी (balui mitti) भारत में राजस्थान राज्य में सबसे अधिक पाई जाती है। भारत में इस मिट्टी का विस्तार लगभग 144 लाख हेक्टेयर भू-भाग पर है। इस मिट्टी में कई प्रकार के पौधे उगते हैं जिनको कम पानी की आवश्यकता होती है जैसे की - बबूल (कीकर), बेर की झाड़ी और कैक्टस आदि।
वैसे तो मृदा विज्ञानं के अनुसार इस मिट्टी को खेती के लिए उत्तम नहीं माना गया है। परंतु किसानों द्वारा उचित प्रबंधन करके इस मिट्टी में फसल उत्पादन आसानी से किया जा सकता है।
मुख्य रूप से रेतीली मिट्टी में ज्वार, बाजरा, रागी और अन्य मोटे अनाजों की खेती की जा सकती है। क्योंकि मोटे अनाज वाली फसलों को कम पानी की आवश्यकता होती है और ये अधिक तापमान को आसानी से सहन कर सकते हैं।
चिकनी मिट्टी (chikni mitti) को काली मिट्टी के नाम से भी जाना जाता है। इस मिट्टी के कणों का आकार 0.002 mm से भी कम होता है। इसलिए इसको चिकनी या क्ले बारीक कणों वाली मुलायम मिट्टी भी बोला जाता है।
इस मिट्टी की जल धारण क्षमता सबसे ज्यादा होती है। इस मिट्टी के कण छोटे होते हैं जिस कारण से एक दूसरे को जकड़े रहते हैं और पानी मिट्टी में भरा रहता है। इस मिट्टी का प्रयोग बर्तन बनने के लिए भी किया जाता है।
चिकनी मिट्टी को काली कपास की मिट्टी के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस मिट्टी में सबसे ज्यादा कपास का उत्पादन होता है। इसके अलावा इस मिट्टी में चने और जुट की खेती भी की जाती है। काली चिकनी मिट्टी में सबसे अधिक महाराष्ट्र में पायी जाती है। इस मिट्टी में कपास की खेती सबसे ज्यादा प्रचलित है इसलिए महाराष्ट्र और गुजरात कपास के उत्पादन में सबसे आगे है।
जलोढ़ मिट्टी नदियों द्वारा बहाकर लाई जाती है और मैदानी भागों में बिछाई जाती है। जलोढ़ मिट्टी भारत की सबसे उपजाऊ मिट्टी है। यह भुरभुरा अथवा ढीली होती है अर्थात् इसके कण आपस में सख्ती से बंधकर कोई 'ठोस' शैल नहीं बनाते। इस मिट्टी में सबसे ज्यादा फसल उत्पादन होता है।
जलोढ़ मिट्टी (jalod mitti) नदियों द्वारा बहाकर उत्तरी मैदानी भागी में बिछाई गयी है। ये भारत का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण मिट्टी का समहू है। ये मिट्टी सबसे ज्यादा सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में उपस्थित है, जो पूर्व में पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम से शुरू होती है।
इस मिट्टी को दूसरे कई नामों से जाना जाता है जैसे की पुराने जलोढ़ को खादर कहते हैं जबकि नदियों के आस पास के क्षेत्र में प्रति वर्ष बहा कर लाइ जाने वाली अधिक उपजाऊ मृदा को बांगर के नाम से भी जाना जाता है। इस मिट्टी को इंगलिश में अलूवियम साइल खा जाता है।
इन प्रमुख मृदा प्रकारों के वितरण और गुणधर्मों को समझना, भारत में सतत कृषि और भू-उपयोग योजना के लिए आवश्यक है। प्रत्येक मृदा प्रकार की विशेष विशेषताओं को ध्यान में रखकर कृषि अभ्यास और भू-प्रबंध तकनीकें को उनके विशिष्ट गुणधर्मों के साथ मेल करने के लिए आवश्यक हैं। उत्पादकता और पर्यावरण संरक्षण को अनुकूलित करने के लिए। साथ ही, सूखाग्रस्ति और पोषण की कमी जैसी चुनौतियों का सामना करने के लिए चल रहे अनुसंधान और प्रौद्योगिकी प्रगति भी महत्वपूर्ण हैं।