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कपास भारत की सबसे महत्वपूर्ण फाइबर और नकदी फसल में से एक है और यह देश की औद्योगिक और कृषि अर्थव्यवस्था में प्रमुख भूमिका निभाता है। यह सूती वस्त्र उद्योग के लिए बुनियादी कच्चा माल (सूती फाइबर) का एक प्रमुख श्रोत है। भारत में कपास की खेती 6 मिलियन किसानों की आजीविका और लगभग 40 -50 मिलियन लोग कपास के व्यापार और प्रसंस्करण में कार्यरत हैं।
भारत में दस प्रमुख कपास उगाने वाले राज्य हैं जिन्हें तीन भागों में बांटा गया है। उत्तर क्षेत्र, मध्य क्षेत्र और दक्षिण क्षेत्र। उत्तरी क्षेत्र में पंजाब, हरियाणा और राजस्थान। मध्य क्षेत्र में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात शामिल हैं अथवा दक्षिण क्षेत्र में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक और तमिलनाडु शामिल हैं। इन दस राज्यों के अलावा, पूर्वी राज्य उड़ीसा में कपास की खेती ने गति पकड़ी है। कपास की खेती उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे गैर-पारंपरिक राज्यों के छोटे क्षेत्रों में भी की जाती है।
कपास की चार प्रजातियाँ हैं - गॉसिपियम अर्बोरियम, जी.हर्बसियम, जी.हिर्सुटम और जी.बारबडेंस। पहली दो प्रजातियां द्विगुणित हैं (2n=26) और पुरानी दुनिया के मूल निवासी हैं। उन्हें एशियाटिक कॉटन के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि ये एशिया में उगाई जाती है। अंतिम दो प्रजातियां टेट्राप्लोइड (2n = 52) हैं और इन्हें न्यू वर्ल्ड कॉटन के रूप में भी जाना जाता है।
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इसके आलावा जी.हिर्सुटम को अमेरिकन कॉटन या अपलैंड कॉटन के रूप में भी जाना जाता है। जी.बारबडेंस इजिप्शियन कॉटन या सी आइलैंड कॉटन या पेरुवियन कॉटन या टेंगुइश कपास या गुणवत्ता कपास के रूप में जाना जाता है। जी.हिर्सुटम प्रमुख प्रजाति है जो वैश्विक उत्पादन के लिए लगभग 90% अकेले योगदान देती है। शायद भारत दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जहां सभी चार खेती की जाने वाली प्रजातियाँ व्यावसायिक पैमाने पर उगाई जाती हैं।
कपास, एक अर्ध-जेरोफाइट, उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय परिस्थितियों में उगाई जाने वाली फसल है। खेत की परिस्थितियों में बेहतर अंकुरण के लिए न्यूनतम 15oC तापमान आवश्यक है। कपास की वनस्पति वृद्धि के लिए इष्टतम तापमान 21-27oC होना जरुरी है और कपास 43oC की सीमा तक के तापमान को सहन कर सकता है, लेकिन 21oC से नीचे तापमान फसल के लिए हानिकारक है। गरमी के दिनों में फसल के फलने की अवधि के दौरान बड़ी दैनिक विविधताओं वाली ठंडी रातें टिंडे और फाइबर विकास अनुकूल होती हैं।
कपास अच्छी तरह से जल निकासी वाली गहरी जलोढ़ मिट्टी से लेकर विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उगाई जाती है। उत्तर से मध्य क्षेत्र में अलग-अलग गहराई की काली चिकनी मिट्टी और दक्षिण क्षेत्र में मिश्रित काली और लाल मिट्टी में कपास की खेती की जाती है। कपास लवणता के प्रति अर्ध-सहिष्णु और सवेदनशील है। कपास की बुवाई का मौसम अलग-अलग क्षेत्रों में काफी भिन्न होता है।
आम तौर पर उत्तरी भारत में जल्दी (अप्रैल-मई) कपास की बुवाई की जाती है और दक्षिण की ओर जून के बाद बुवाई की जाती है। मानसून आधारित देश के प्रमुख भागों में कपास खरीफ की फसल पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात,महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के कुछ हिस्से में कपास खरीफ की फसल है।
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इन क्षेत्रों में सिंचित फसल की बुवाई मार्च-मई में की जाती है और जून-जुलाई में वर्षा आधारित फसल की मानसून की शुरुआत के साथ बुवाई की जाती है। तमिलनाडु में कपास सिंचित और वर्षा सिंचित फसल का प्रमुख भाग को सितंबर-अक्टूबर में बोया जाता है। कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में, देसी कपास आमतौर पर अगस्त-सितंबर में बोई जाती है। इसके अलावा, तमिलनाडु में ग्रीष्मकालीन बुवाई फरवरी-मार्च में की जाती है।
उत्तरी क्षेत्र में गेहूँ की कटाई के बाद भूमि की तैयारी के लिए उपलब्ध समय सीमित है। गेहूं की कटाई के बाद बुवाई पूर्व सिंचाई की जाती है। भूमि तैयारी के लिए ट्रैक्टर से चलने वाले हैरो, कल्टीवेटर का इस्तेमाल किया जाता है, सबसे पहले हैरो से खेत की दो बार जुताई करे बाद में कल्टीवेटर के पीछे सुवहागा जोड़ कर खेत को समतल करे।
भारत के मध्य और दक्षिणी क्षेत्र में जहां कपास एक वर्षा आधारित फसल है, प्लॉव से गहरी 4 साल में एक बार बारहमासी खरपतवार को नष्ट करने के लिए जुताई की जाती है। शुरुआत में पहले ब्लेड हैरो से जुताई करके जमीन तैयार की जाती है। नमी संरक्षण के लिए सूखी भूमि में मेढ़ों और खांचों पर बुवाई की जाती है।
कपास की बुवाई ट्रैक्टर या बैल चालित सीड ड्रिल या डिब्लिंग द्वारा की जाती है। वर्षा सिंचित क्षेत्रों में उचित दूरी पर हाथ से बीज का रोपण किया जाता है (विशेष रूप से संकर किस्मों के लिए)। यह प्रणाली उचित प्लांट स्टैंड, एकसमान पौध विकास को सुनिश्चित करती है और इस प्रणाली से बीज की भी बचत होती है। यह अब बीटी की बुवाई की मुख्य प्रणाली बनती जा रही है। कपास की खेती चालू ढलानों के आर-पार की मेढ़ें अधिक पानी का संरक्षण करती हैं, मिट्टी के कटाव को कम करती हैं और उपज में सुधार करती हैं।
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जलवायु और फसल उगाने की अवधि के आधार पर, कपास को 700-1,200 mm पानी की आवश्यकता होती है। अगर मौसम बुवाई के बाद लगातार सूखा बना रहता है तो बुवाई के 45 दिनों बाद फसल में हल्की सिंचाई अवश्य करें इसके बाद बुवाई के 60-70 दिन बाद और पुष्पण और बीजकोष के विकास के दौरान उच्चतम मौसम के आधार पर फसल में सिंचाई करनी प्रभावी मानी जाती है।
कपास आमतौर पर वर्षा से सिंचित होती है, हालांकि सिंचाई कुंड या वैकल्पिक रूप से भी की जाती है। कुंड विधि अधिक प्रभावी और पानी की बचत करती है। आजकल विशेष रूप से मध्य और दक्षिणी क्षेत्रों के संकरों में ड्रिप सिंचाई लोकप्रिय हो रही है। उत्तरी क्षेत्र की बलुई दोमट मिट्टी पर 3-5 सिंचाई आमतौर पर दी जाती है। तमिलनाडु की कम पानी वाली लाल रेतीली दोमट मिट्टी पर प्रतिधारण क्षमता के आधार पर, 4-8 हल्की सिंचाई आवश्यक हो सकती है।
कपास की फसल में उर्वरक की मात्रा अधिक होती है क्योकि कपास लम्बे समय तक खेत में खड़े रहने वाली फसल है, इसलिए इसको ज्यादा पोशाक तत्वों की आवश्यकता होती है। फसल में गली सड़ी गोबर की खाद 5 टन प्रति एकड़, नाइट्रोजन - 40 - 50 कि.ग्रा./एकड़, फोस्फोरस - 20 किलोग्राम प्रति एकड़ और पोटाश भी 20 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से डालें इससे फसल की पैदावार अच्छी होती है।
फसल में हलाई के समय भी npk पोशक तत्वों को डाला जाता है इसके आलावा आपकी खेत की मिट्टी में पोशक तत्वों की कमी या ज्यादा मात्रा है तो मृदा परीक्षण के आधार पर खेत में उर्वरक डालें।
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फसल में खरपतवार नियंत्रण कुदाल या देसी हल का इस्तेमाल कर के किया जा सकता है। छितराकर बोई जाने वाली फसल में एक या दो हाथ की गुड़ाई होती है। खरपतवारों को दूर करने के लिए दी जाने वाली अंतर-खेती न केवल खरपतवारों की वृद्धि को रोकती है बल्कि बेहतर मिट्टी वातन और मिट्टी की नमी संरक्षण की ओर जाता है।
खरपतवार कपास की फसल से पोषक तत्वों, प्रकाश और नमी के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। कपास की बुवाई से लेकर लगभग 70 दिन, खरपतवार प्रतिस्पर्धा के लिए अतिसंवेदनशील होते है। यदि खरपतवारों की वृद्धि अनियंत्रित हो तो कपास की पैदावार 50 से 85% तक कम हो जाती है।