सोयाबीन मुख्य रूप से भारत की एक महत्वपूर्ण तिलहनी नकद फसल के रूप में स्थापित हो गयी है। लगभग 40 प्रतिशत प्रोटीन, 20 प्रतिशत तेल एवं कई गुणों से भरपूर ये फसल वंडर क्रॉप के रूप में भी जानी जाती है। इस फसल में तेल की मात्रा ज्यादा होने से इसको तिलहनी वर्ग में रखा गया है।
सोयाबीन से दूध, दही, मक्खन एवं पनीर बनाया जाता सकता है। रासायनिक विश्लेष्ण के अनुसार सोयाबीन का दूध गाय के दूध के समान होता है। सोयाबीन के तेल में वसा अम्ल कम होने के कारण इसका तेल ह्रदय रोगियों के लिए लाभदायक होता है।
मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद राजस्थान का सोयाबीन के उत्पादन में तीसरा स्थान है। राजस्थान में सोयाबीन की खेती कोटा, झालावाड़, बारे एवं बूंदी जिलों के अतिरिक्त चितौडगढ़ एवं प्रतापगढ़ जिले में यापक रूप से की जाती है। उदयपुर एवं बांसवाड़ा जिलों में भी कुछ क्षेत्र में इसकी खेती की जाती है।
किसानों के लिए सोयाबीन का बहुत अधिक महत्व है क्योकि ये एक ऐसी फसल है जिसमे कम उर्वरकों का इस्तेमाल करने पर भी अच्छी खासी उपज प्राप्त होती है और सोयाबीन की फसल खेत की मिट्टी की उपजाऊ शक्ती को काफी हद तक बढ़ा देती है।
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सोयाबीन के लिए चिकनी से लेकर दोमट मिट्टी, अच्छे जल निकासी वाली तथा ऊषर रहित मिट्टी उपयुक्त रहती है। फसल की अच्छी वृद्धि के लिए खेत को भली भाती तैयार करना जरुरी होता है। गर्मी के मौसम में एक गहरी जुताई करनी आवशयक है जिससे की खेत की भूमि में उपस्थित कीड़े, रोग एवं खरपतवारों के बीज नष्ट हो सके और भूमि की जलधारण क्षमता में भी वृद्धि हो।
खेत में सबसे पहले हैरो से जुताई करे ताकि पूर्व फसल की जड़े और अवशेष खत्म किए जा सके, इसके बाद खेत में गोबर की गली सड़ी खाद को अच्छी तरह से खेत की मिट्टी में मिलाए। उसके बाद कल्टीवेटर, हैरो या रोटावेटर से खेत के ढेले तोड़ कर खेत की मिट्टी को भुरभुरी कर ले। इसके बाद खेत में सुवहागा चलाकर खेत को समतल कर ले। खेत की अच्छी तैयारी अधिक अंकुरण के लिए आवश्यक होती है।
सोयाबीन की बुवाई मानसून आने के साथ ही करनी चाहिए। सोयाबीन की बुवाई के लिए जून के तीसरे सप्ताह से जुलाई का प्रथम सप्ताह सबसे अधिक उपयुक्त समय है। पछेती और देर से बुवाई करने से उपज में गिरावट आती है। जहा सिंचाई का साधन उपलब्ध हो वहां वर्षा का इंतज़ार न करते हुए पलेवा देकर बुवाई करें।
बुवाई सीड ड्रिल या हल के साथ नाला बांधकर पंक्तियों में करें। सोयाबीन की बुवाई पंक्तियों में 30 से 45 सेंटीमीटर की दुरी पर करें। अच्छे अंकुरण के लिए पर्याप्त नमी का होना अत्यंत आवश्यक है।
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उचित और बेहतरीन अंकुरण के लिए छोटे व मध्यम दाने वाली किस्मों का 25 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ एवं मोटे दाने वाली किस्मों का 40 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ दर से बोना चाहिए।
बीज की बुवाई से पहले बीज को फफूंदनाशक से उपचारित करें। इसके लिए बीज को 3 ग्राम थायरम या 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें।
बीजों को ड्रम या घड़े में डालकर फफूंदनाशकों से भली भांति उपचारित करें जिससे बीजों पर दवा की एक परत बन जाए। बीजोपचार से बीज की सतह पर लगी फफूंद का विनाश होता है और भूमि में रहने वाले रोगाणु भी नष्ट हो जाते है।
बुवाई से पूर्व 10 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 किलोग्राम फॉस्फोरस एवं 20 किलोग्राम पोटाश प्रति एकड़ दे।
सोयाबीन की उन्नत किस्में है - अलंकार, अंकुर, शिलाजीत, पंजाब -1, पूसा - 16
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खरपतवारों से होने वाले नुकसान को हम प्रत्यक्ष रूप से नहीं देख सकते है, जैसे की कीड़ो और रोगो के नुकसान को देखा जा सकता है। यही कारण है कि किसान खरपतवारों के नियंत्रण में देरी कर जाते है।
सोयाबीन खरीफ की फसल होने से इसमें शुरू से ही खरपतवारों का अधिक प्रकोप रहता है। सोयाबीन के साथ-साथ एवं उसके पूर्व उग कर खरपतवार भूमि से सारे पोशाक तत्व, उर्वरक और भूमि से पर्याप्त नमी खींच लेता है और अपनी वृद्धि तेजी से करता है।
सोयाबीन की खड़ी फसल में खरपतवार नियंत्रण निराई -गुड़ाई द्वारा - बुवाई के साथ ही खरपतवारों का निकलना शुरू हो जाता है। जहां तक हो सके सोयाबीन को शुरू की अवस्था में खरपतवारों से मुक्त रखा जाना चाहिए।
सोयाबीन की फसल में 15 - 20 तथा 30 - 40 दिनों की अवस्था पर खुरपी, कुदाली या अन्य कृषि यंत्रों से दो निराई - गुड़ाई अवश्य करें, इससे खरपतवार नियंत्रण के साथ-साथ मृदा में वायु संचार बढ़ने से सोयाबीन की अच्छी वृद्धि एवं उपज में बढ़ोत्तरी होती है, साथ ही नमी संरक्षण भी होता है।
सिंचित फसल में एलाक्लोर 2 लीटर/एकड़ या पेंडीमिथालिन 500 ml एआई/एकड़ की दर से बुवाई के बाद और एक हाथ से निराई-गुड़ाई बुवाई के 30 दिन बाद की जा सकती है। यदि शाकनाशी स्प्रे नहीं दिया जाता है तो बुवाई के 20 और 35 दिन बाद दो निराई-गुड़ाई की जा सकती है।
रोग के लक्षण शुरू में पत्तियों के पीलेपन और झड़ने से शुरू होते हैं। बाद में पत्तियाँ झड़ जाती हैं और पौधा एक सप्ताह में मर जाता है। पत्तियों के ऊपर गहरे भूरे रंग के घाव दिखाई देते हैं। जमीनी स्तर पर तना और छाल में कतरन के लक्षण दिखाई देते हैं। प्रभावित पौधे में सड़े हुए ऊतक तने और जड़ में बड़ी संख्या में काले सूक्ष्म स्क्लेरोटिया होते हैं।
रोग नियंत्रण
बीजों को कार्बेन्डाजिम या थीरम 2 ग्राम/किलोग्राम से उपचारित करें या बीजों को ट्राइकोडर्मा विराइड 4 ग्राम/कि.ग्रा. या स्यूडोनोमास फ्लोरेसेंस @10 ग्राम/किलोग्राम बीज से उपचारित करे।
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जब तक पौधे लगभग छह सप्ताह के नहीं हो जाते तब तक लक्षण प्रकट नहीं होते हैं। शुरू में कुछ पौधों में हल्के हरे रंग की ढीली पत्तियाँ देखी जाती हैं जो जल्द ही पीली हो जाती हैं।
इस रोग के मुख्य लक्षण अवरुद्ध, हरित हीनता, पौधे का गिरना, समय से पहले झड़ना या शिराओं के साथ पत्तियों का मुरझाना है। अंत में पौधा 5 दिनों के भीतर मर जाता है।आखरी स्टेज पर भूरा, बैंगनी मलिनकिरण कॉर्टिकल क्षेत्र देखा जाता है, जो अक्सर पूरे पौधे में फैला होता है।
रोग नियंत्रण
बीजों को कार्बेन्डाजिम या थीरम 2 ग्राम/किलोग्राम से उपचारित करें या ट्राइकोडर्मा विराइड 4 ग्राम/कि.ग्रा.बीजों का उपचार करें। फसल में कार्बेन्डाजिम 0.5 ग्राम/लीटर के साथ स्पॉट ड्रेंचिंग करे।
पत्तियों पर हल्के से गहरे भूरे या भूरे रंग के धब्बे से लेकर बड़े धब्बे दिखाई देते हैं। रोग मुख्य रूप से पत्तियों को प्रभावित करता है, लेकिन तना, फली और बीज भी प्रभावित हो सकते हैं। पत्ती के घाव गोल या कोणीय होते हैं, पहले भूरे रंग के होते हैं फिर हल्के भूरे से ऐश ग्रे रंग के डार्क मार्जिन के साथ पुरे पत्ते पर फेल जाता है। पत्ती के धब्बे आपस में मिलकर बड़े धब्बे बना सकते हैं। जब घाव गहरे होते है तब कई पत्तियाँ समय से पहले मुरझा जाती हैं और गिर जाती हैं, फलियों पर घाव गोलाकार होते हैं।
रोग नियंत्रण
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जब सभी पत्ते पिले हो और गिरने शुरू हो जाएं तब फसल की कटाई कर लेनी चाहिए। फली पीला और गिरना शुरू हो जाता है और पौधा डंठल के साथ ही खड़ा रहता है। कटाई दराती की मदद से की जाती है। कटी हुई फसल को कुछ दिनों के लिए सुखाया जाना चाहिए। फसल के सूखने के बाद थ्रेसर की मदद से बीजों को अलग करें।